मृदा पृथ्वी की सतर का ऊपरी उपजाऊ भाग है। मृदा का निर्माण चट्टानों के भौतिक, रासायनिक तथा जैविक अपक्षरण के कारण होता है। मृदा निर्माण को मृदा जनन कहते है। खनिज पदार्थ मृदा में खनिज पदार्थ चट्टानों के अपक्षय के कारण होते है। कार्बनिक पदार्थ पौधों तथा जन्तुओं के मृत शरीर या उनसे उत्सर्जी पदार्थो से प्राप्त पदार्थ जीवाणुओं तथा कवकों द्वारा विघटित कर ह्यूमस में बदल दिए जाते है। ह्यूमस की जल धारण क्षमता अधिक होने के कारण मृदा अधिक उपजाऊ हो जाती है। जलाक्रान्त मृदा में ऑक्सीजन की कमी तथा CO2 की अधिकता के कारण जीवों की मृत्यु हो जाती है।
मृदा परिच्छेदिका
सतह से नीचे स्थित शैलों तक भूमि की ऊर्ध्व काट को मृदा परिच्छेदिका कहते हैं। सामान्यतया मृदा में चार सस्तर A, B, C तथा D होते है। संस्तर को ऊपरी मृदा कहते है। इसमें कार्बनिक पदार्थो की अधिकता तथा जैविक क्रियाए चरम सीमा पर होती है। मृदा संस्तर B को उपमृदा कहते है। इसमें कम कार्बनिक पदार्थ तथा ऊपरी स्तर से निक्षलित पदार्थ एकत्र होते है। A तथा B संस्तर मिलकर वास्तविक मृदा बनाते हैं, जिसे सोलम कहते हैं। संस्तर में अपूर्ण रूप से अपक्षीण चट्टानों तथा D या R संस्तर में अनपक्षीण जनक चट्टानें पाई जाती है। प्रचुर पोषक पदार्थ युक्त मृदा यूट्रॉफिक, जबकि कम पोषक पदार्थ युक्त मृदा ऑलिगोट्रॉफिक कहलाती है।
मृदा के प्रकार
उत्पत्ति, रंग, संयोजन तथा अवस्थिति के आधार पर भारत की मृदायों को निम्नलिखित प्रकारों में वर्गीकृत किया गया है। कुछ मुख्य प्रकार की भारतीय मृदाएँ निम्न है।
1. जलोढ़ मृदा
जलोढ़ मृदा उत्तरी मैदान और नदी घाटियों के विस्तृत भागों में पाई जाती हैं। ये मृदा देश के कुल क्षेत्रफल के लगभग 40 प्रतिशत भाग को ढके हुए हैं। राजस्थान के एक संकीर्ण गलियारे से होती हुई ये मृदाएँ गुजरात के मैदान में फैली मिलती हैं। प्रायद्वीपीय प्रदेश में ये पूर्वी तट की नदियों के डेल्टाओं और नदियों की घाटियों में पाई जाती हैं। जलोढ़ मृदा गठन में बलुई दुमट से चिकनी मृदा की प्रकृति की पाई जाती हैं। सामान्यतः इनमें पोटाश की मात्रा अधिक और फास्फोरस की मात्रा कम पाई जाती है।
निम्न तथा मध्य गंगा के मैदान और ब्रह्मपुत्र घाटी में ये मृदा अधिक दुमटी और मृण्मय हैं। पश्चिम से पूर्व की ओर इनमें बालू की मात्रा घटती जाती है। जलोढ़ मृदा का रंग हलके धूसर से राख धूसर जैसा होता है। इसका रंग निक्षेपण की गहराई जलोढ़ के गठन और निर्माण में लगने वाली समयावधि पर निर्भर करता है। जलोढ़ मृदा पर गहन कृषि की जाती है।
2. काली मृदा
काली मृदा क्लेयुक्त अधिक उपजाऊ मिट्टी है। इसमें घास, वन, फसलें जैसे-चावल, गन्ना, कपास, सोयाबीन, आदि उगाए जाते है। यह दक्षिण पश्चिम भारत के पठारों पर पाई जाती है। काली मृदा दक्कन के पठार के अधिकतर भाग पर पाई जाती हैं। इसमें महाराष्ट्र के कुछ भाग गुजरात, आंध्र प्रदेश तथा तमिलनाडु के कुछ भाग शामिल हैं। गोदावरी और कृष्णा नदियों के ऊपरी भागों और दक्कन के पठार के उत्तरी पश्चिमी भाग में गहरी काली मृदा पाई जाती है।
काली मृदा को ‘रेगर’ तथा ‘कपास वाली काली मृदा’ भी कहा जाता है। ये काली मृदा गीले होने पर फूल जाती हैं और चिपचिपी हो जाती हैं। सूखने पर ये सिकुड़ जाती हैं। इस प्रकार शुष्क ऋतू में काली मृदा में चौड़ी दरारें पड़ जाती हैं। इस समय ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे इनमें ‘स्वतः जुताई’ हो गई हो। नमी के धीमे अवशोषण और नमी के क्षय की इस विशेषता के कारण काली मृदा में एक लम्बी अवधि तक नमी बनी रहती है।
3. लाल और पीली मृदा
यह अति उपयोगी मृदा है, इसमें घास, वन, फसले, आदि उगाई जा सकती हैं, यह मध्य प्रदेश, बिहार तथा उत्तरी आन्ध्र प्रदेश में पाई जाती है। लाल मृदा का विकास दक्कन के पठार के पूर्वी तथा दक्षिणी भाग में कम वर्षा वाले उन क्षेत्रों में हुआ है, जहाँ रवेदार आग्नेय चट्टानों पाई जाती हैं। पश्चिमी घाट के गिरिपद क्षेत्र की एक लंबी पट्टी में लाल दुमटी मृदा पाई जाती है। पीली और लाल मृदाएँ ओडिशा तथा छत्तीसगढ़ के कुछ भागों और मध्य गंगा के मैदान के दक्षिणी भागों में पाई जाती है।
इस मृदा का लाल रंग रवेदार तथा कायांतरित चट्टानों में लोहे के व्यापक विसरण के कारण होता है। जलयोजित होने के कारण यह पीली दिखाई पड़ती है। महीने कणों वाली लाल और पीली मृदाएँ सामान्यतः उर्वर होती हैं। इसके विपरीत मोटे कणों वाली उच्च भूमियों की मृदाएँ अनुर्वर होती हैं। इनमें सामान्यतः नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और ह्यूमस की कमी होती है।
4. लेटराइट मृदा
इसमें गाय, भैंस का गोबर तथा पौधे, आदि मिल जाने के कारण यह अधिक उपजाऊ होती है। यह निचली सतह पर दलदल भूमि में तथा नदियों के डेल्टा या मुहाने पर पाई जाती है। लैटेराइट एक लैटिन शब्द ‘लेटर’ से बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ ईंट होता है। लेटराइट मृदा उच्च तापमान और भारी वर्षा के क्षेत्रों में विकसित होती हैं। ये मृदाएँ उष्ण कटिबंधीय वर्षा के कारण हुए तीव्र निक्षालन का परिणाम हैं। वर्षा के साथ चूना और सिलिका तो निक्षालित हो जाते हैं तथा लोहे के ऑक्साइड और अल्यूमीनियम के यौगिक से भरपूर मृदाएँ शेष रह जाती हैं।
उच्च तापमानों में आसानी से पनपने वाले जीवाणु ह्यूमस की मात्रा को तेजी से नष्ट कर देते हैं। लेटराइट मृदा में जैव पदार्थ, नाइट्रोजन फास्फेट और कैल्शियम की कमी होती है तथा लौह-ऑक्साइड और पोटाश की अधिकता होती है। परिणामस्वरूप लेटराइट मृदा कृषि के लिए पर्याप्त उपजाऊ नहीं हैं। फसलों के लिए उपजाऊ बनाने के लिए लेटराइट मृदा में खाद और उर्वरकों की भारी मात्रा डालनी पड़ती है।
5. लवण मृदा
लवण मृदा को ऊसर मृदाएँ भी कहते हैं। लवण मृदा में सोडियम, पौटेशियम और मैग्नीशियम का अनुपात अधिक होता है। अतः ये अनुर्वर होती हैं और इनमें किसी भी प्रकार की वनस्पति नहीं उगती। मुख्य रूप से शुष्क जलवायु और खराब अपवाह के कारण इनमें लवणों की मात्रा बढ़ती जाती है। लवण मृदा शुष्क और अर्ध शुष्क तथा जलाक्रांत क्षेत्रों और अनूपों में पाई जाती हैं। इनकी संरचना बलुई से लेकर दुमटी तक होती है। इनमें नाइट्रोजन और चूने की कमी होती है। लवण मृदा का अधिकतर प्रसार पश्चिमी गुजरातए पूर्वी तट के डेल्टाओं और पश्चिमी बंगाल के सुंदर वन क्षेत्रों में है।
अम्लीय मृदा में पाई जाने वाली वनस्पतियों को ऑक्जेलोफाइट्स, लवणीय मृदा में पाई जाने वाली वनस्पतियों को हैलोफाइट्स, बलुई मृदा में उगने वाली वनस्पतियॉ सैमोफाइट्स तथा चट्टानों पर उगने वाली वनस्पतियॉ लीथोफाइट्स कहलाती है।
6. वन मृदा
ये मृदा पर्याप्त वर्षा वाले वन क्षेत्रों में ही बनती हैं। वन मृदा का निर्माण पर्वतीय पर्यावरण में होता है। इस पर्यावरण में परिवर्तन के अनुसार मृदाओं का गठन और संरचना बदलती रहती हैं। घाटियों में ये दुमटी और पांशु होती हैं तथा ऊपरी ढालों पर ये मोटे कणों वाली होती हैं। हिमालय के हिमाच्छादित क्षेत्रों में इन मृदाओं का अनाच्छादन होता रहता है और ये अम्लीय और कम ह्यूमस वाली होती हैं। निचली घाटियों में पाई जाने वाली वन मृदा उर्वर होती हैं।
7. पर्वतीय मृदा
इसका रंग सलेटी, हल्का पीला या भूरा होता है, और अपेक्षाकृत कम उपजाऊ होती है, इसमें केवल चीड़, देवदार, के वृक्ष ही उगते है। यह हिमालय के पर्वतीय क्षेत्रों में पाई जाती है।
8. मरूस्थलीय मृदा
यह कम कार्बनिक पदार्थो की उपलब्धता के कारण कम उपजाऊ होती है। यह मृदा पश्चिमी रेगिस्तानों में पाई जाती है।
9. दलदली मृदा
ये जलाक्रान्त एवं भारी, नाइट्रोजन व ऑक्सीजन की कमी युक्त मृदा है, जो दलदली स्थानों में पाई जाती है। सुन्दरवन के तटीय क्षेत्रों में उड़ीसा, बंगाल तथा दक्षिणी पूर्वी तमिलनाडू में पाई जाती है।
10. बलुई मृदा
बलुई मृदा में प्राप्य जल का अभाव होता है। इस प्रकार की मृदा को भौतिक रूप से शुष्क मृदा कहते है। लवणरागी मृदा में लवणों की मात्रा अधिक होने के कारण जल अप्राप्य होता है, इस प्रकार की मृदा के शुष्क मृदा कहते है।
11. तराई मृदा
इस प्रकार की मृदा का निर्माण गिर धारा तथा नदिकाओं द्वारा लाए गए कूड़ा-करकट तथा मिट्टी के द्वारा होता है। मृदा कणों के आकार-प्रकार एवं बाहुल्य के आधार पर ये बलुई, चिकनी, सिल्ट, एवं दोमट कहलाती है। दोमट मृदा खेती के लिए सबसे अच्छी होती है।
मृदा अपरदन
उपजाऊ मिट्टी या ऊपरी मृदा का हवा, पानी या अन्य भौगोलिक परिस्थतियों के कारण हानि को मृदा अपरदन कहते है। मृदा अपरदन दो मुख्य कारकों जल एवं वायु द्वारा होता है। मृदा के आवरण का विनाश, मृदा अपरदन कहलाता है। बहते जल और पवनों की अपरदनात्मक प्रक्रियाएँ तथा मृदा निर्माणकारी प्रक्रियाएँ साथ-साथ घटित हो रही होती हैं। सामान्यतः इन दोनों प्रक्रियाओं में एक संतुलन बना रहता है। धरातल से सूक्ष्म कणों के हटने की दर वही होती है जो मृदा की परत में कणों के जुड़ने की होती है।
कई बार प्राकृतिक अथवा मानवीय कारकों से यह संतुलन बिगड़ जाता है, जिससे मृदा के अपरदन की दर बढ़ जाती है। मृदा अपरदन के लिए मानवीय गतिविधियाँ भी काफी हद तक उत्तरदायी हैं। जनसंख्या बढ़ने के साथ भूमि की माँग भी बढ़ने लगती हैं। मानव बस्तियों, कृषि, पशुचारण तथा अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वन तथा अन्य प्राकृतिक वनस्पति साफ कर दी जाती हैं।
मृदा संरक्षण
यदि मृदा अपरदन और मृदा क्षय मानव द्वारा किया जाता है, तो स्पष्टतः मानवों द्वारा इसे रोका भी जा सकता है। संतुलन बनाए रखने के प्रकृति के लिए अपने नियम हैं। बिना संतुलन बिगाड़े भी प्रकृति मानवों को अपनी अर्थव्यवस्था का विकास करने के पर्याप्त अवसर प्रदान करती है। मृदा संरक्षण एक विधि है, जिसमें मृदा की उर्वरता बनाए रखी जाती है, मृदा के अपरदन और क्षय को रोका जाता हैं।
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