आज इस लेख में हम देवनागरी लिपि के विकास, देवनागरी लिपि का नामकरण, देवनागरी लिपि की विशेषताएं तथा देवनागरी लिपि के दोष और देवनागरी लिपि में सुधार के प्रयास के बारे में अध्ययन करेंगे।
देवनागरी लिपि किसे कहते हैं
ब्राह्मी लिपि से विकसित नागरी लिपि से ही देवनागरी लिपि की उत्पत्ति हुई है। देवनागरी लिपि का सर्वप्रथम प्रयोग गुजरात के राजा जय भट्ट के एक शिलालेख में हुआ है।
देवनागरी लिपि का विकास
देवनागरी लिपि का विकास निश्चित रूप से कब और कैसे हुआ यह आज भी विवाद का विषय है। इस लिपि का सर्वप्रथम प्रयोग गुजरात के नरेश जयभट्ट (700-800 ई0) के एक शिलालेख में मिलता है। आठवीं और नवीं शताब्दी में क्रमशः राष्ट्रकूट नरेशों एवं एवं बड़ौदा के ध्रुवराज ने अपने देश में इस लिपि का प्रयोग किया था। विजयनगर और कोंकड़ भी इसके विकास के महत्वपूर्ण स्थान रहे हैं। इसी मत के आधार पर कतिपय विद्वानों की यह मान्यता है कि सर्वप्रथम इसका विकास दक्षिण में हुआ और उसके अनन्तर उत्तर भारत में।
ईसा की आठवीं शताब्दी से अठारहवीं शताब्दी तक देवनागरी लिपि मेवाड़ के गुहेलवंशी राजा, मारवाड़ के परिहार राजा, मध्यप्रदेश के हैहयवंशी राजा, राठौर और कल्चुरी नरेशों कन्नौज के गाहरवाड़ और गुजरात के सोलंकी राजाओं में पर्याप्त मात्रा में प्रचलित रही। वैसे यह लिपि भारत के कई क्षेत्रों में विकसित रही है। उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्याप्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, गुजरात आदि प्रन्तों से उपलब्ध शिलालेख, हस्तलेख, प्राचीन ग्रन्थ आदि में देवनागरी लिपि ही अधिक मिलती है। आज तो सम्पूर्ण हिन्दी क्षेत्र की यह एकमात्र अधिष्ठात्री बनी हुई है।
देवनागरी लिपि का नामकरण
इसके नामकरण के बारे में विद्वानो में बड़ा मतभेद है। कुछ महत्वपूर्ण विचार-धाराएँ इस प्रकार है
- डॉ धीरेंद्र वर्मा के अनुसार मध्य युग की स्थापत्य शैली नगर के नाम पर इसका नाम नगरी पड़ा।
- आर श्याम शास्त्री के अनुसार देवताओं की प्रतिमाओं के बनने के पूर्व उनकी उपासना सांकेतिक चिन्हो द्वारा होती थी जो कई रूप प्रकार के त्रिकोणी यंत्रों आदि के मध्य लिखे जाते थे वे यंत्र देवनगर कहलाते थे और उनके मध्य लिखे जाने वाले अनेक प्रकार के सांकेतिक चिन्ह वर्ण माने जाने लगे इसी से उसका नाम देवनागरी हुआ।
- नगरों में प्रयुक्त होने के कारण इसका नाम नगरी पड़ा।
- गुजरात के नगर गोत्र के ब्राह्मणों द्वारा अधिक प्रयुक्त होने के कारण इसका नाम नागरि पड़ा।
- प्राचीन काल में काशी को देवनगर कहा जाता था वहां अधिक प्रयुक्त होने के कारण इसे देवनागरी कहा गया।
- चक्रवर्ती सम्राट चंद्रगुप्त को देव तथा उनकी राजधानी को पाटलिपुत्र को नागर कहा जाता था, इसी से देवनागरी नाम अस्तित्व में आया।
- महायानी बौद्ध संप्रदाय के ललित विस्तार नामक ग्रंथ में देव तथा नाग दो लिपियों का प्रयोग हुआ है, उन दोनो लिपिों का मिला- जुला रूप होने के कारण इसका नाम देवनागरी पड़ा।
देवनागरी लिपि की विशेषताएं
- ध्वनि तथा वर्ण में सामंजस्य- देवनागरी लिपि में जैसर बोला जाता है, वैसा ही लिखा जाता है।
- एक ध्वनि के लिए एक ही संकेत चिह्न- इसका तात्पर्य है कि रोमन लिपि में ‘क’ ध्वनि के लिए ‘K’, ‘C’ ‘Q’ आदि वर्ण प्रचलित हैं, परंतु देवनागरी लिपि में ऐसा नहीं है, इसमें एक ध्वनि लिए एक ही प्रकार का ध्वनि चिह्न होता है।
- असंदिग्धता- रोमन लिपि में एक ही संकेत चिह्न के अनेक उच्चारण हो सकते है, परंतु देवनागरी लिपि में ऐसा नहीं होता है।
- सभी ध्वनियों का उच्चारण- रोमन लिपि में उच्चारण में अनेक ध्वनियों का लोप कर दिया जाता है। देवनागरी लिपि में ऐसर नहीं है।
- यह अक्षरात्मक लिपि है।
- ध्वनि-चिह्नों का वैज्ञानिक क्रम एवं वर्गीकरण
- विश्व की सभी ध्वनियों को अभिव्यक्त करने की क्षमता
- स्वरों को मात्रा के रूप में अलग से लिखने की आवष्वयकता नही।
- शिरोरेखा के प्रयोग से शब्द की एकल इकाई सुरक्षित व स्पष्ट रहती है।
- वर्ण संयोग के कारण लेखन में स्थान बचता है।
देवनागरी लिपि के दोष
- वर्ण द्वैधता- अर्थात कुछ वर्णन दो तरह से लिखे जाते हैं।
- मात्राओं के प्रयोग में एकरूपता का अभाव।
- शिरो रेखा के प्रयोग के कारण लेखन में समय ज्यादा लगता है।
- वर्णमाला बहुत लंबी है।
- अनावश्यक वर्णों की अधिकता।
- अनुस्वार के प्रयोग में भ्रम की स्थिति।
- वर्णों को संयुक्त करने का कोई निश्चित नियम नहीं है।
- ‘इ’ की मात्रा पहले लगती है जबकि उच्चारण बाद में होता है इसमें वैज्ञानिकता का हनन होता है।
देवनागरी लिपि में सुधार के प्रयास
देवनागरी लिपि में सुधार के व्यक्तिगत प्रयास
- सबसे पहले महादेव गोविंद रानाडे ने 1889 ईस्वी में देवनागरी लिपि में सुधार की बात कही।
- 1904 ईस्वी में बाल गंगाधर तिलक ने अपने पत्र केसरी के लिए 1926 टाइपों की छॉटाई कर 190 टाइप छॉटे जिन्हें तिलक फोंट कहा गया।
- महाराष्ट्र के सावरकर बंधुओ ने ;अ’ की 12 खड़ी तैयार की तथा इसके प्रयोग का सुझाव दिया महात्मा गांधी ने अपने पत्र हरिजन सेवक में इसका प्रयोग किया।
- सुंदर श्याम सुंदर ने पांच अक्षरों के स्थान पर अनुस्वार के प्रयोग का प्रस्ताव रखा।
- डॉक्टर गोरखनाथ ने सुझाव दिया की मात्राओं को वर्णों के ऊपर नीचे दाएं बाएं लगाने से जो समस्या पैदा होती है उसके निराकरण के लिए मात्राओं को वर्णों के बाद अलग से दाहिनी और लिख देना चाहिए।
- काशी के विद्वान श्रीनिवास ने सुझाव दिया महाप्राण वर्णों के स्थान पर अल्पप्राण व्यंजनों के नीचे गुरु चिन्ह लगा दिया जाए तथा महाप्राण व्यंजनों को हटा दिया जाए इससे वर्णन की संख्या में कमी आ जाएगी।
देवनागरी लिपि में सुधार के संस्थागत प्रयास
- सबसे पहले जस्टिस शारदा चरण मित्र ने 1905 ईस्वी में लिपि विस्तार परिषद का गठन कर सभी भारतीय भाषाओं के लिए एक लिपि के निर्माण पर बोल दिया उन्होंने 1907 ईस्वी में देवनगर नामक एक पत्र भी निकाल।
- 1935 ईस्वी में हिंदी साहित्य सम्मेलन की और से महात्मा गांधी के सभापति में नागरी लिपि सुधार समिति का गठन किया गया। इस समिति के संयोजक काका कालेलकर दत्तात्रेय बालकृष्ण कालेलकर 1985 तो 1989 थे।
देवनागरी लिपि के सुधार में प्रशासनिक प्रयास
- देवनागरी लिपि के मानकीकरण के संबंध में पहला प्रशासनिक प्रयास उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा किया गया। उत्तर प्रदेश सरकार ने 31 जुलाई 1947 को नरेंद्र देव समिति का गठन किया। इस समिति की कुल 9 बैठकें हुई तथा समिति ने 25 में 1949 को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत।
- नरेंन्द्र देव समिति की रिपोर्ट के बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने 28-29 नवंम्बर, 1953 में नागरी लिपि सुधार संबंधी सुझावों पर विचार करने के लिए लखनऊ में लिपि सुधार परिषद् का गठन किया गया। इसकी बैठक की अध्यक्षता डा0 सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने की थी। इस समिति को राधाकृष्णन समिति के नाम से भी जाना जाता है। इस समिति ने ‘अ’ की बारहखड़ी के सुझाव का अस्वीकार कर दिया।
- शिक्षा मंत्रालय भारत सरकार द्वारा 1966 में मानक देव नगरी वर्णमाला का प्रकाशन किया गया। शिक्षा मंत्रालय भारत सरकार द्वारा ही 1967 में ‘हिंदी वर्तनी का मानकीकरण’ का प्रकाश किया गया का प्रकाशन किया गया।