उपचारात्मक शिक्षण, विशेषताएँ, उपचारात्मक शिक्षण के उद्देश्य

बालकों की कठिनाइयों का पता लगाकर उन कठिनाइयों को दूर करने के लिए शिक्षक जो शिक्षण विधियां अपनाता है उसे उपचारात्मक शिक्षण कहते हैं। उपचारत्मक शिक्षण से शिक्षक स्वयं की शिक्षण विधियां का भी मूल्यांकन कर सकता है।

उपचारात्मक शिक्षण

उपचारात्मक शिक्षण का सम्बन्ध विद्यार्थियों की व्यक्तिगत योग्यताओं एवं क्षमताओं की जॉच से ही नहीं वरन् उनकी क्षमताओं, कमजोरियों एवं कठिनाइयों के उपचार से भी है। विशिष्ट बालक की कमजोरी एवं कठिनाई को दूर करने हेतु अध्यापक की अपनी शिक्षण विधि में आवश्यक परिवर्तन लाना पड़ता है ताकि बालक अपनी योग्यतानुसार अधिकतम अधिगम अनुभव प्राप्त कर सके। इस प्रक्रिया को उपचारात्मक शिक्षण कहते कहते हैं।

निदानात्मक परीक्षण

निदानात्मक परीक्षण उपचारात्मक शिक्षण का ही एक रूप हैं जिनके अर्न्तगत विशिष्ट वस्तु अथवा अधिगम अनुभव के अर्जित ज्ञान की विशिष्टताओं एवं कमियों का मूल्यांकन किया जाता है। इन परीक्षाओं से विद्यार्थियों के स्तर का पता नहीं लगाया जाता बल्कि विद्यार्थी  किसी विषय को समझने में क्या कठिनाई अनुभव कर रहा है? इस कठिनाई का क्या कारण हो सकता है? तथा यह कठिनाई  किस प्रकार दूर की जा सकती है? आदि प्रश्नों का उत्तर पाने के लिए अध्यापक को निदान की आवश्यकता पड़ती है।

जिस प्रकार एक सफल चिकित्सक किसी रोगी की चिकित्सा करने से पूर्व उसके रोग का निरीक्षण करता है, रोग का कारण जानने कि लिए यन्त्रों का सहारा लेता है तथा रोगी का पूरा इतिहास तैयार करके रोगियों से उस रोग के लक्षणों की तुलना करके चिकित्सा प्रारम्भ करता है, ठीक उसी प्रकार एक सफल अध्यापक भी सर्वप्रथम यह ज्ञात करता है कि बालक किन कारणों से विषय को समझने में कठिनाई अनुभव कर रहा है? उसके कठिनाई के स्थल कौन-कौन से हैं?तथा ऐसे और कितने विद्यार्थी है जो उस छात्र की श्रेणी में आते हैं?

इन कठिनाइयों के कारण शारीरिक दोषों में, हीन भावनाओं में, संवेगों में, बुरी आदतों में, रूचि की न्यूवता में, दोष पूर्ण शिक्षण विधि में तथा घरेलू दूषित वातावरण में ढूँढने का प्रयास करता है। निःसंदेह अध्यापक का यह कार्य चिकित्सक के कार्य से अत्यन्त जटिल है, क्योंकि किसी रोग का कारण जीवाणु  हो सकता है लेकिन शिक्षा सम्बन्धी कारण इतने जटिल होते है कि उनका विष्लेषण करना कठिन हो जाता है, जिसके लिए अध्यापक विभिन्न प्रकार की विधियों, परीक्षणों एवं उपकरणों का सहारा लेता है।

बालक की कमजोरी का इस प्रकार निदान कर चुकने के पश्चात् वह फिर विविध उपचारात्मक शिक्षण की विधियाँ की सहायता से उपचार करता है और बालक की कमजोरी को दूर करने का प्रयास करता है। इस पूरी प्रक्रिया को शैक्षणिक निदान कहते है।

उपचारात्मक मूल्यांकन

उपचारात्मक मूल्यांकन से शिक्षकों को अपने छात्रों को किसी विषय, उनके कौशल सेट और क्षमताओं के वर्तमान ज्ञान की पहचान करने में और शिक्षण से पहले गलत धारणाओं को स्पष्ट करने में मदद मिल सकती है। छात्रों की ताकत और कमजोरी के बारे में जानने से एक शिक्षक को बेहतर योजना बनाने में मदद मिल सकती है कि उसे क्या पढ़ाया जाए और कैसे पढ़ाया जाए। उपचारात्मक मूल्यांकन के प्रकारों में शामिल हैं

  • पूर्व प्रशिक्षण
  • स्व-मूल्यांकन
  • चर्चा बोर्ड प्रतिक्रियाओं
  • साक्षात्कार

उपचारात्मक शिक्षण एक बहुआयामी दृष्टिकोण है। इसमें शिक्षण शैलियों और रणनीतियों को संशोधित करना और नैदानिक मूल्यांकन द्वारा पहचाने गए बच्चे की विशिष्ट आवश्यकताओं के लिए सुधारात्मक हस्तक्षेप योजनाओं का उपयोग करना शामिल है। यह प्रकृति में रचनात्मक है।

    उपचारात्मक शिक्षण के उद्देश्य

    • विद्यार्थी के भाषा संबंधी विभिन्न दोषों का निवारण करके उसे अधिक कुशल एवं योग्य बनाना।
    • विद्यार्थियों की अशुद्धियों को दूर करना
    • मातृभाषा के कारण उच्चारण और लेखन में होने वाली त्रुटियां को दूर करना।
    • छात्रों में आत्मविश्वास की भावना पैदा करना।
    • मानसिक तनाव के कारण छात्रों के शिक्षण में होने वाले अवरोध को दूर करना।

    उपचारात्मक शिक्षण का महत्व

    उपचारात्मक शिक्षण से उन बालकों को विशेष लाभ होता है, जो किन्हीं कारणों से सीखने की क्रिया में पिछड़ जाते हैं। इसके द्वारा बालकों की सीखने संबंधी कठिनाइयों का पता चल जाता है। उपचारात्मक शिक्षण द्वारा छात्रों की व्यक्तिगत कठिनाइयां दूर होती हैं। यह शिक्षण संबंधी कठिनाइयों को दूर करने में सहायक है, जिससे बालकों को अपनी शक्ति एवं योग्यता के अनुसार प्रगति करने का अवसर मिलता है।

    उपचारात्मक शिक्षण के लक्षण

    • यह एक एक निर्देश, छोटे समूह अनुदेश, लिखित कार्य, मौखिक कार्य और कंप्यूटर आधारित कार्य का उपयोग करता है।
    • उन विद्यार्थियों को सहायता की पेशकश की जाती है जिन्हें सहायता की आवश्यकता होती है, अक्सर उन बच्चों को जो एक निश्चित सीखने या व्यवहार की समस्या विकास के कारण औसत स्तर से कम है।
    • यह उन विद्यार्थियों को भी दिया जा सकता है जो औसत स्तर से ऊपर होते हैं वह भी अतिरिक्त ध्यान और देखभाल के साथ और अधिक अच्छा प्रदर्शन कर सकते हैं।

    उपचारात्मक परीक्षाओं की विशेषताएँ

    किसी उपचारात्मक परीक्षा को अध्यापक एवं छात्रों की दृष्टि से उपयोगी होने के लिए उसमें निम्न गुणों का होना अपेक्षित है-

    1. ये परीक्षाएं पाठ्य-क्रम का अभिन्न अंग होती है।
    2. ये परीक्षाएं प्रमापीकृत होती है परन्तु कुछ विषेषज्ञों का विचार है कि निदानात्मक परीक्षाओं को प्रमापीकृत नहीं किया जाता है।
    3. ये परीक्षाएं विशिष्ट उद्देष्यों के अनुरूप होती हैं।
    4. ये परीक्षाएं बालक की योग्यता का मापन नहीं करतीं बल्कि विषय सम्बन्धी कमजोरी का निदान करके उसके उपचार की व्यवस्था करतह हैं।
    5. इन परीक्षाओं में समय सीमा निर्धारित नहीं की जाती।
    6. ये परीक्षाएं विष्लेषणात्मक होती हैं तथा किसी भी प्रक्रिया के अंषों का पूर्ण विष्लेषण करती है।
    7. इन परीक्षाओं का आधार ऐसे तथ्य या मानक होते हैं जिन्हें प्रयोगों के आधार पर स्थापित किया जाता है।
    8. इन परीक्षाअें में विद्यार्थी द्वारा प्राप्त अंकों को कोई महत्व नहीं दिया जाता। इसमें तो केवल यह देखा जाता है कि विद्यार्थी किस स्तर की कठिनाई वाले प्रश्नों को हल कर लेता है।
    9. ये परीक्षाएं सीखने वाले की मानसिक प्रक्रिया के स्वरूप को बिल्कुल स्पष्ट कर देती है।
    10. ये परीक्षाएं बालकों की प्रगति का वस्तुनिष्ठ रूप से परीक्षण करती है। यदि शैक्षणिक निदान को उपचार से सम्बन्धित कर दिया जाये तो निश्चित ही इससे विद्यार्थियों के बहुत लाभ होगा। प्रयोगों के आधार पर यह सिद्ध किया जा चुका है कि शैक्षणिक निदान एवं उपचारात्मक षिक्षण सभी विषयों में उपयोगी सिद्ध हुए है।

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